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Page 1 ੴ सतिगुर प्रसादि॥ जपु जी का भाव पउड़ी-वार भाव: (अ) १ से ३- “झूठ” (माया) के कारण जीव की जो दूरी परमात्मा से बनती जा रही है वह प्रमात्मा के ‘हुक्म’ में चलने से ही मिट सकती है।

  श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल   Page 1 ੴ सतिगुर प्रसादि॥ जपु जी का भाव पउड़ी-वार भाव: (अ) १ से ३- “झूठ” (माया) के कारण जीव की जो दूरी परमात्मा से बनती जा रही है वह प्रमात्मा के ‘हुक्म’ में चलने से ही मिट सकती है। जब से जगत बना है तब से ही यही असूल चला आ रहा है।१। प्रभु का ‘हुक्म’ एक ऐसी सत्ता है, जिसके अधीन सारा ही जगत है। उस हुक्म-सत्ता का मुकम्मल स्वरूप् बयान नहीं हो सकता, पर जो मनुष्य उस हुक्म मंर चलना सीख लेता है, उस का स्वै-भाव मिट जाता है।२। प्रभु के भिन्न-भिन्न कार्यों को देख के मनुष्य अपनी-अपनी समझ अनुसार प्रभु की हुक्म-सत्ता का अंदाजा लगाते चले आ रहे हैं। करोड़ों ने ही प्रयत्न किया है, पर किसी भी तरफ से अंदाजा नहीं लग सका। बेअंत दातें उस के हुक्म में बेअंत लोगों को मिल रही हैं। प्रभु की हुक्म-सत्ता ऐसी ख़ूबी के साथ जगत का प्रबंध कर रही है कि बावजूद बेअंत उलझनों व गुँझलदार होते हुए भी उस प्रभु को कोई थकावट या खीज नहीं है।३। (आ) ४ से ७ दान-पुण्य करने वाले या किसी तरह के पैसे के चढ़ावे से जीव की प्रभु से यह दूरी नहीं मिट