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JAGAT MEIN JHOOTHI DEKHI PREET -Explanation in Hindi

देव  गंधारी महला ९ 

जगत में देखी प्रीति | अपने ही सुख सिउ सभि लागे किआ दारा किआ मीत || १ || 

मेरउ  मेरउ  सभै कहत है हित सिउ बाधिओ चीत | अंति कालि संगी नह कोऊ इह अचरज है रीति || १ || 

मन मूरख अजहू न समझत सिख दै हारिओ नीत | नानक भउजलु पारि परै जउ गावै प्रभ के गीत || २ || ३ || ६ || ३८ || ४७ || 

भावसार :हे भाई !दुनिआ में सम्बन्धियों का प्रेम मैंने मिथ्या ही देखा है।चाहे स्त्री हो या मित्र -सब अपने सुख की खातिर आदमी के साथ लगे हैं || १ || रहाउ || 

हे भाई !सबका हृदय मोह से बंधा हुआ है। प्रत्येक यही कहता है कि 'यह मेरा है ', 'यह मेरा है 'लेकिन अंतिम समय  कोई मित्र नहीं बनता। यह आश्चर्य मर्यादा सदा से चली आई है || १ || 

हे मूर्ख मन !तुझे मैं कह -कहकर थक गया हूँ ,तू अभी भी नहीं समझता | नानक का कथन है कि जब मनुष्य परमात्मा की गुणस्तुति  के गीत गाता है ,तब संसार सागर से उसका उद्धार हो जाता है। || २ || ३ || ६ || ३८ || ४७ || 


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काहे रे बन खोजन जाई | सर्ब निवासी सदा अलेपा तोही संगि समाई || १ || रहाउ ||  पुहप मधि जिउ बासु बसतु है मुकर माहि जैसे छाई | तैसे ही हरि बसे निरंतरि घट ही खोजहु भाई || १ ||  बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआनु बताई | जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई || २ || १ ||  भावसार : हे भाई ! परमात्मा को पाने के लिए तू जंगलों में क्यों जाता है ?परमात्मा सबमें विद्यमान है ,लेकिन सदा माया में निर्लिप्त रहता है। वह परमात्मा तुम्हारे साथ ही रहता है || १ ||  हे भाई ! जैसे पुष्प में सुगन्धि ,शीशे में प्रतिबिम्ब रहता है , उसी प्रकार परमात्मा निरंतर सबके भीतर अवस्थित रहता है।  इसलिए उसे अपने हृदय में ही खोजो। || || १ ||  गुरु का उपदेश यह बतलाता है कि अपने भीतर और बाहर एक परमात्मा को अवस्थित समझो। हे दास नानक ! अपना आत्मिक जीवन परखे दुविधा का जाला दूर नहीं हो सकता। || २ || १ || 

Page 1 ੴ सतिगुर प्रसादि॥ जपु जी का भाव पउड़ी-वार भाव: (अ) १ से ३- “झूठ” (माया) के कारण जीव की जो दूरी परमात्मा से बनती जा रही है वह प्रमात्मा के ‘हुक्म’ में चलने से ही मिट सकती है।

  श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल   Page 1 ੴ सतिगुर प्रसादि॥ जपु जी का भाव पउड़ी-वार भाव: (अ) १ से ३- “झूठ” (माया) के कारण जीव की जो दूरी परमात्मा से बनती जा रही है वह प्रमात्मा के ‘हुक्म’ में चलने से ही मिट सकती है। जब से जगत बना है तब से ही यही असूल चला आ रहा है।१। प्रभु का ‘हुक्म’ एक ऐसी सत्ता है, जिसके अधीन सारा ही जगत है। उस हुक्म-सत्ता का मुकम्मल स्वरूप् बयान नहीं हो सकता, पर जो मनुष्य उस हुक्म मंर चलना सीख लेता है, उस का स्वै-भाव मिट जाता है।२। प्रभु के भिन्न-भिन्न कार्यों को देख के मनुष्य अपनी-अपनी समझ अनुसार प्रभु की हुक्म-सत्ता का अंदाजा लगाते चले आ रहे हैं। करोड़ों ने ही प्रयत्न किया है, पर किसी भी तरफ से अंदाजा नहीं लग सका। बेअंत दातें उस के हुक्म में बेअंत लोगों को मिल रही हैं। प्रभु की हुक्म-सत्ता ऐसी ख़ूबी के साथ जगत का प्रबंध कर रही है कि बावजूद बेअंत उलझनों व गुँझलदार होते हुए भी उस प्रभु को कोई थकावट या खीज नहीं है।३। (आ) ४ से ७ दान-पुण्य करने वाले या किसी तरह के पैसे के चढ़ावे से जीव की प्रभु से यह दूरी नहीं मिट