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सलोक भगत कबीर जीउ के (सलोक ९ -१२ )श्रीगुरुग्रंथ साहब से

सलोक भगत कबीर जीउ के (सलोक ९ -१२ )श्रीगुरुग्रंथ साहब से 

कबीर सोई मारीऐ जिह मूए सुखु होइ ,भलो भलो सभु को कहै बूरो न मानै कोइ। 

कबीर राती होवहि कारीआ कारे ऊभे जंत ,लै फाहे उठि धावते सि जानि मारे 
भगवंत। 

कबीर चंदन का बिरवा भला  बेढ़ीओं ढाक पलास ,ओइ भी चंदनु होइ रहे बसे जु चंदन पासि। 

कबीर बांसु बडाई बूडिआ इउ मत डूबहु कोइ ,चंदन कै निकटे बसै बांसु सुगंधु न होइ। 

भावार्थ एवं सारतत्व :

कबीर जी कहते हैं उस अहंभाव को मारिये जिसके मरने से सदा सुख उपजे। कोई कुछ भला बुरा कह दे तो क्रोध में न आइये चुप रहिये इसमें सब यही कहेंगे बड़ा भला आदमी है सब कुछ चुप करके सह गया। अहम भाव में आने से क्रोध उपजेगा ,क्रोध पे संयम बरतिए। क्रोध के मिटने से काफूर होने से आपको खुद भी सुख मिलेगा।क्रोध एक विकार है माया का पुत्र है।  

यूँ भी संसार में कोई दुष्ट हानिकारक तत्व नष्ट होता है ,कोई बुरा नहीं मानता सब उसकी पुष्टि करते हैं। इसीलिए भी अपने अंतर् में क्रोध को स्थान न दीजिये।वहां तो वाहगुरु का वास है।  

कबीर काले कर्म करने वालों को रात बहुत रास आती है रात भी तो अज्ञान का ही प्रतीक है अन्धकार है ,माया का छली रूप काजल की कोठरी यही अज्ञान है इसलिए रात होते  ही माया से छले जाने वाले लोग सेंध मारी को निकल पड़ते है लूटपाट करते हैं कबीर कहते हैं ये काले कारनामे करने वाले तो वैसे ही परमात्मा के मारे हुए हैं।वास्तव में तो ये खुद ही माया का ग्रास बनते हैं। उजाला आदमी को सचेत करता है अन्धेरा जड़।माया इन कालेकारनामे करने वालों का उपभोग खुलकर करती है। क्योंकि ये ज्ञान (उजाले )से छिटकते हैं।  

कबीर जी कहते हैं ब्रह्मज्ञानी नीवां होकर विनम्र भाव से जीता है उसका होना ,अस्तित्व चंदन की तरह मुखरित सुवासित स्वयं ही होता है जैसे   चंदन  का बावन इंची छोटा सा बिरवा बड़े बड़े कोमल पत्ते बड़े फूल वाले पलास और ढाक के वृक्षों से घिरा रहे उसका धर्म है सुवास बिखेरना वह अपनी सुवास से सबको सुवासित कर देता है ,ऐसे ही जो ब्रह्मज्ञानी के संसर्ग में आता है वह भी ब्रह्मज्ञानी ही हो जाता है।

 लेकिन एक बांस का वृक्ष अपने ही विकार अहंकार से इसी अभिमान को बनाये रहता है मैं सबसे लम्बा हूँ।अहंकार ऐसा विकार है जो विकारी अहंकारी को ही नष्ट कर देता है। होमै से ग्रस्त व्यक्ति में ज्ञान ठहरता ही नहीं है। वह अंदर से बांस की तरह खोखला होता है। उसके हृदय में अंतकरण में  वाहगुरु का आलोक प्रवेश ही नहीं कर पाता। इसके विपरीत यह स्वयं कुलनाशी दावानाल जंगल की आग का भी कारण (सबब )बनता है.पतझर में  जब फूल पत्ते झड़ जाते हैं वनप्रांतर के बांस के लम्बे वृक्ष आपस में ही रगड़ खाकर सुलगने लगते हैं अहंकार ही अहंकारी को ही मार देता है। 

कबीर के सलोक (कबीर दोहावली )अभिधा ,लक्षणा,व्यंजना के पार तात्पर्य तक आते हैं। सारे वैदूष्य  के बाद भी इनका अंतर्निहित भाव इनके अंदर ही रह जाता है।क्योंकि कोई एक भाषा में प्रवीण है कोई वैयाकरण में कोई व्यंजना में लेकिन ये सलोक फिर भी अव्याख्यायित ही रह जाते हैं।      



  

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