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साधो रचना राम बनाई | इकि बिनसै इक असथिरु मानै अचरजु लखियो न जाई || १ || रहाउ ||

गौड़ी (गउड़ी )महला ९ आदि श्री गुरुग्रंथ साहब 

साधो रचना राम बनाई | इकि बिनसै इक असथिरु मानै अचरजु लखियो न जाई || १ || रहाउ || काम क्रोध मोह बसि प्रानी हरि मूरति बिसराई | झूठा तनु साचा करि मानिओ जिउ सुपना रैनाई || १ || जो दीसै सो सगल बिनासै जिउ बादर की छाई | जन नानक जगु जानिओ मिथिआ रहिओ राम सरनाई || २ || २ || 

भावसार :हे संतजनो! परमात्मा ने (जगत की यह आश्चर्यजनक )रचना रच दी है (कि )एक मनुष्य (तो )मरता है (पर )दूसरा मनुष्य (उसे मरता देखकर अपने आपको सदा टिके रहनेवाला समझता है | यह एक आश्चर्य जनक तमाशा है जो व्यक्त नहीं किया जा सकता है || १ || रहाउ || 

मनुष्य काम, क्रोध ,लोभ और मोह के वशीभूत होता है और परमात्मा के अस्तित्व को भुलाये रखता है। यह शरीर सदा साथ रहने वाला नहीं है लेकिन मनुष्य इसे सत्य स्वरूप समझता है; जैसे रात के वक्त स्वप्न (आता है और मनुष्य इसे सत्यस्वरूप समझता है )|| १ || 

(हे संतजनो! )जैसे बादल की छाया (सदा एक स्थान पर टिकी नहीं रहती ,वैसे ही )जो कुछ दृष्टिगोचर होता है ,वह सब नष्ट हो जाता है। हे दास नानक ! (जिस मनुष्य ने ) जगत को नाशवान समझ लिया है ,वह (सत्यस्वरूप )परमात्मा की शरण लिए रहता है  || २ || २ || 

प्रसंगवश :धर्मराज युधिष्ठिर से यक्ष प्रश्न करते हैं। " किं  आश्चर्य "
अर्थात संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ?युधिष्ठिर कहते हैं :नित्य प्रति लाखों लोग मृत्यु के मुख में जा रहे हैं जो आज नहीं गए हैं वे कल चले जायेंगे,फिर भी मनुष्य समझता है मैं अमर हूँ। जो  पड़ोसी  के घर हुआ है मेरे साथ नहीं होगा। 

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  श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल   Page 1 ੴ सतिगुर प्रसादि॥ जपु जी का भाव पउड़ी-वार भाव: (अ) १ से ३- “झूठ” (माया) के कारण जीव की जो दूरी परमात्मा से बनती जा रही है वह प्रमात्मा के ‘हुक्म’ में चलने से ही मिट सकती है। जब से जगत बना है तब से ही यही असूल चला आ रहा है।१। प्रभु का ‘हुक्म’ एक ऐसी सत्ता है, जिसके अधीन सारा ही जगत है। उस हुक्म-सत्ता का मुकम्मल स्वरूप् बयान नहीं हो सकता, पर जो मनुष्य उस हुक्म मंर चलना सीख लेता है, उस का स्वै-भाव मिट जाता है।२। प्रभु के भिन्न-भिन्न कार्यों को देख के मनुष्य अपनी-अपनी समझ अनुसार प्रभु की हुक्म-सत्ता का अंदाजा लगाते चले आ रहे हैं। करोड़ों ने ही प्रयत्न किया है, पर किसी भी तरफ से अंदाजा नहीं लग सका। बेअंत दातें उस के हुक्म में बेअंत लोगों को मिल रही हैं। प्रभु की हुक्म-सत्ता ऐसी ख़ूबी के साथ जगत का प्रबंध कर रही है कि बावजूद बेअंत उलझनों व गुँझलदार होते हुए भी उस प्रभु को कोई थकावट या खीज नहीं है।३। (आ) ४ से ७ दान-पुण्य करने वाले या किसी तरह के पैसे के चढ़ावे से जीव की प्रभु से यह दूरी नहीं मिट