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फरीदा ख़ाक न निंदिये खाकू जेडु न कोइ | जीवदिआ पैरा तलै मुइया उपरि होइ || १७ ||

फरीदा ख़ाक न निंदिये खाकू जेडु न कोइ | जीवदिआ पैरा तलै मुइया उपरि होइ || १७ ||

फरीदा जा लबु ता नेहु किआ लबु त कूड़ा नेहु | किचरु झति लगाईऐ छपरि तुटै मेहु | | १८ ||

फरीदा जंगलु जंगलु किआ भवहि  वणि कंडा मोड़ेहि | वसी रबु हीआलीऐ जंगलु किआ ढूढेहि || १९ ||

फरीदा  इनी निकी जंघीऐ  थल डूँगर भविओम्हि | अजु फ़रिदै  कूजड़ा सै  कोहां  थीओमी || २० ||

                                                 ------- आदि श्रीगुरु ग्रन्थ साहब से 

भावसार :ऐ फ़रीद  मिट्टी (ख़ाक )की निंदा क्यों की जाए ,(जबकि सभी को एक दिन सुपुर्दे ख़ाक होना है ,ख़ाक यानी पृथ्वी से ही वनस्पति ,वनस्पति से ही हम पैदा हुए हैं )अर्थात मिट्टी  के बराबर उपकारी कुछ  भी नहीं है। मनुष्य जब तक जीवित होता है ये मिट्टी ही उसके चलने का आधार ज़मीन होती है ,यही मिट्टी उसके पाँव तले होती है (अर्थात उसे खड़ा रहने की शक्ति देती है ) और मरने पर यही मिट्टी उसकी पाखियों  से रक्षा करती है उसके ऊपर हो जाती है। अर्थात पशु पक्षियों से मृत शरीर की रक्षा करती  है।|| १७ || 

ऐ फ़रीद ,जहां लोभ -लालच हो ,क्या वहां प्यार हो सकता है ? यदि लोभ -लालच है तो प्यार निश्चय ही पाखण्ड होगा मिथ्या दिखावा ही होगा। आखिर बरसात गिरने पर  टूटे  हुए छप्पर के नीचे कब तक समय बिताया जा सकता है !(टूटा हुआ छप्पर यहां लोभ -लालच का ही प्रतीक है। उसके नीचे हमेशा निभाना असंभव होता है। )|| १८ || 

फरीद कहते हैं ,ऐ मनुष्य तुम जंगल -जंगल में ,वनस्पति और नदी तटों पर घूमते हुए क्या खोज रहे हो ? परमात्मा तो तुम्हारे भीतर हृदय में बसा  हुआ है ,तुम जंगलों में भला क्यों फिरते हो (उसे पाना है तो अंतर्मन में ही पा लो )|| १९ || 

फरीद कहते हैं कि (जवानी में )इन छोटी  टांगों से मैंने सब मरुस्थलों -पहाड़ों को नाप डाला ,किंतु आज बुढ़ापे में निकट रखी मिट्टी  की घटिका ,वजू करने का जल पात्र मुझे सौ कोसों पर रखा  दीखता  है ,सब दमख़म  चुक गया बुढ़ापे में इतनी भी सामर्थ्य न रही वजू का पानी भी स्वयं उठा लूँ। अर्थात बुढ़ापे में अब इबादत भी नहीं होती। कुछ भी करने का सामर्थ्य शेष नहीं रह गया है। || २० ||  

  

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