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जा मै भजनु राम को नांही | तिह नर जनमु अकारथ खोइआ यह राखउ मन माही || १ ||

(रागु )बिलावलु महला ९ (आदिश्री गुरु ग्रन्थ साहब से )

जा मै भजनु राम को नांही | तिह नर जनमु अकारथ खोइआ यह राखउ मन माही || १ || 

तीरथ करै ब्रत फुनि राखै नह मनूआ बसि जा को | निहफल धरम ताहि तुम  मानो साचु कहत मै या कउ || १ || 

जैसे पाहनु जल महि राखिओ भेदै नाहि तिहि पानी | तैसे ही तुम ताहि पछानो भगति हीन जो प्रानी || २ || 

कल मै मुकति नाम ते पावत गुर यह भेदु बतावै | कहु नानक सोई नरु गरूआ जो प्रभ के गुन गावै || ३ || ३ || 


भावसार :

जो लोग राम -भजन नहीं करते उन लोगों का जन्म व्यर्थ है ,ऐसा निश्चय मान लो || १ || रहाउ || 

जो लोग तीर्थ करते हैं ,व्रत -उपवास में भी कष्ट उठाते हैं ,तो भी यदि उनका मन वश में नहीं है तो उनका समूचा धर्म -विधान निष्फल है ,यह मेरा अनुभूत सत्य है || १ || 

जैसे यदि पत्थर को पानी में रखा जाये तो पानी उसके भीतरी भाग को नहीं भिगो पाता ; ठीक वैसे ही तुम भक्तिहीन प्राणियों को समझो (वे भी बाहरी आडम्बर तो करते हैं ,किन्तु पत्थर की तरह भक्ति उनके भीतर प्रभाव नहीं डालती )|| २ || 

गुरु ने यह रहस्य स्पष्ट कर दिया है कि कलियुग में प्रभु -नाम के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती ; इसलिए गुरु कथन है कि प्रभु का गुण गान गाने वाला मनुष्य ही सही महत्व को अर्जित करता है। || ३ || ३ || 

कलियुग कीर्तन ही परधाना ,

गुरमुख जप ले लाए ध्याना। 

कलियुग केवल नाम अधारा ,

सिमर -सिमर भव उतरे पारा। 

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JAGAT MEIN JHOOTHI DEKHI PREET -Explanation in Hindi

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  श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल   Page 1 ੴ सतिगुर प्रसादि॥ जपु जी का भाव पउड़ी-वार भाव: (अ) १ से ३- “झूठ” (माया) के कारण जीव की जो दूरी परमात्मा से बनती जा रही है वह प्रमात्मा के ‘हुक्म’ में चलने से ही मिट सकती है। जब से जगत बना है तब से ही यही असूल चला आ रहा है।१। प्रभु का ‘हुक्म’ एक ऐसी सत्ता है, जिसके अधीन सारा ही जगत है। उस हुक्म-सत्ता का मुकम्मल स्वरूप् बयान नहीं हो सकता, पर जो मनुष्य उस हुक्म मंर चलना सीख लेता है, उस का स्वै-भाव मिट जाता है।२। प्रभु के भिन्न-भिन्न कार्यों को देख के मनुष्य अपनी-अपनी समझ अनुसार प्रभु की हुक्म-सत्ता का अंदाजा लगाते चले आ रहे हैं। करोड़ों ने ही प्रयत्न किया है, पर किसी भी तरफ से अंदाजा नहीं लग सका। बेअंत दातें उस के हुक्म में बेअंत लोगों को मिल रही हैं। प्रभु की हुक्म-सत्ता ऐसी ख़ूबी के साथ जगत का प्रबंध कर रही है कि बावजूद बेअंत उलझनों व गुँझलदार होते हुए भी उस प्रभु को कोई थकावट या खीज नहीं है।३। (आ) ४ से ७ दान-पुण्य करने वाले या किसी तरह के पैसे के चढ़ावे से जीव की प्रभु से यह दूरी नहीं मिट