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करि इसनानु सिमरि प्रभु अपना मन तन भए अरोगा || कोटि बिघन लाथे प्रभ सरणा प्रगटे भले संजोगा || १ ||

|| सोरठि महला ५ || आदिश्रीगुरुग्रंथसाहब से 

करि इसनानु सिमरि प्रभु अपना मन तन भए अरोगा || 

कोटि बिघन लाथे प्रभ सरणा प्रगटे भले संजोगा || १ || 

प्रभ बाणी सबदु सुभाखिआ || 

गावहु सुणहु पड़हु नित भाई गुर  पूरै तू राखिआ || रहाउ || 

साचा साहिबु अमिति वडाई भगति वछल दइआला || 

संता की पैज रखदा अइआ आदि बिरदु प्रतिपाला || २ || 

हरि  अंमृत नामु भोजनु नित भुंचहु सरब वेला मुखि पावहु || 

ज़रा मरा तापु सभु नाठा गुण गोबिंद नित गावहु || ३ || 

सुणी अरदासि सुआमी मेरै सरब कला बनि आई || 

प्रगट भई सगळे जुग अंतरि गुर नानक की वडिआई || ४ || ११ || 

भावसार 

प्रात : काल स्नान करके और प्रभु का नाम -स्मरण करके मन ,तन निरोग हो जाते हैं क्योंकि प्रभु की शरण लेकर करोड़ों रुकावटें दूर हो जातीं हैं और प्रभु के साथ मिलाप के अवसर बन जाते हैं || १ || 

हे भाई ! गुरु ने अपना सुन्दर उपदेश दिया है ,जो प्रभु की  गुणस्तुति की वाणी है ,इसे सदा गाते रहो ,सुनते रहो और पढ़ते रहो ,(ऐसा करने पर यह निश्चित है कि अनेक मुसीबतों से ) पूर्णगुरु ने तुझे बचा लिया है || रहाउ || 

हे भाई ! मालिक -प्रभु सत्यस्वरूप है ,उसका बड़प्पन मापा नहीं जा सकता ,वह भक्ति से प्रेम करने वाला है ,दया का स्रोत है ,संतों की प्रतिष्ठा की रक्षा करता आया है और अपना यह विरद वह आदिमकाल से ही निभाता आ रहा है || २ || 

हे भाई !परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है | यह आत्मिक खुराक सदा खाते रहो ,प्रतिपल अपने मुंह में डालते रहो | हे भाई ! हमेशा गोविन्द का गुणगान करते रहो , न बुढ़ापा आएगा , न मृत्यु आएगी और प्रत्येक दुःख -क्लेश दूर हो जायगा || ३ ||  

हे भाई !(नाम- स्मरण करने वाले )मनुष्य की प्रार्थना मेरे स्वामी ने सुन ली ,(अब प्रभु -कृपा होने पर )उसके भीतर पूर्ण शक्ति पैदा हो जाती है | हे नानक !गुरु की यह महानता तमाम युगों में उजागर रहती है || ४ || ११ || 
 

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  श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल   Page 1 ੴ सतिगुर प्रसादि॥ जपु जी का भाव पउड़ी-वार भाव: (अ) १ से ३- “झूठ” (माया) के कारण जीव की जो दूरी परमात्मा से बनती जा रही है वह प्रमात्मा के ‘हुक्म’ में चलने से ही मिट सकती है। जब से जगत बना है तब से ही यही असूल चला आ रहा है।१। प्रभु का ‘हुक्म’ एक ऐसी सत्ता है, जिसके अधीन सारा ही जगत है। उस हुक्म-सत्ता का मुकम्मल स्वरूप् बयान नहीं हो सकता, पर जो मनुष्य उस हुक्म मंर चलना सीख लेता है, उस का स्वै-भाव मिट जाता है।२। प्रभु के भिन्न-भिन्न कार्यों को देख के मनुष्य अपनी-अपनी समझ अनुसार प्रभु की हुक्म-सत्ता का अंदाजा लगाते चले आ रहे हैं। करोड़ों ने ही प्रयत्न किया है, पर किसी भी तरफ से अंदाजा नहीं लग सका। बेअंत दातें उस के हुक्म में बेअंत लोगों को मिल रही हैं। प्रभु की हुक्म-सत्ता ऐसी ख़ूबी के साथ जगत का प्रबंध कर रही है कि बावजूद बेअंत उलझनों व गुँझलदार होते हुए भी उस प्रभु को कोई थकावट या खीज नहीं है।३। (आ) ४ से ७ दान-पुण्य करने वाले या किसी तरह के पैसे के चढ़ावे से जीव की प्रभु से यह दूरी नहीं मिट