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परमात्मा चीनी का रूप है ,जो संसार की रेत में सर्वत्र बिखरा पड़ा है। हाथी होकर (अहंकारपूर्वक )कोई रेत में बिखरी इस चीनी को एकत्र नहीं कर सकता। केवल सच्चा गुरु ही वह ज्ञान बता सकता है ,जिससे मनुष्य चींटी बनकर (विनम्रतापूर्वक )उस चीनी का स्वाद लेता है। || ३८ ||

सलोक भगत कबीर जीउ के :सलोकु संख्या(२३७ -४० )(आदि श्री गुरुग्रंथ साहब से )

भाव सार :कबीर जी कहतें हैं ब्राह्मण जगत का गुरु हो सकता  है। किन्तु  भक्तों  का गुरु बनने का  गुण  उसमें नहीं है।वह तो चारों वेदों के ज्ञानाभिमान में उलझकर मर रहा है -भक्तों को क्या दे सकता है ?|| (२३७ ) ||

परमात्मा चीनी का रूप है ,जो संसार की रेत  में सर्वत्र बिखरा पड़ा है। हाथी होकर  (अहंकारपूर्वक )कोई  रेत में बिखरी इस चीनी को एकत्र नहीं कर सकता। केवल सच्चा गुरु ही वह ज्ञान बता सकता है ,जिससे मनुष्य चींटी बनकर (विनम्रतापूर्वक )उस चीनी का स्वाद लेता है। || ३८ ||

कबीर जी कहते हैं ,यदि प्रभु -प्रेम की इच्छा है ,तो शीश काटकर (अहम- त्याग )गेंद बना लो और उस गेंद से खेलते -खेलते बे -हाल हो जाओ। फिर जो होना होगा ,होने दो (प्रभु पर छोड़ दो )|| २३९ ||

कबीर जी कहते हैं ,यदि तुम्हें प्रभु -प्रेम की इच्छा है तो (सच्चे )पक्के गुरु के सहारे यह खेल खेलो। कच्ची सरसों को पेरने से न तेल निकलता है ,न खली ही बनती है (अर्थात कच्चा तेल न प्रेमळ होता है न फलदायी )|| २४० ||

सलोकु :

कबीर बामनु गुरु है जगत का भगतन को गुरु नाहि। अरझि उरझि कै पचि मूआ चारो बेदहु माहि। || २३७ || 

हरि है खांडु रेतु महि बिखरि हाथी चुनी न जाइ। कहि कबीर गुरि भली बुझाई कीटी होइ कै खाइ ||२३८  ||

कबीर जो तुहि साध पिरन्म की सीसु काटि करि गोइ। खेलत खेलत हाल करि जो किछु होइ त होइ || २३९ || 

कबीर जउ  तुहि  साध पिरम्म की पाके सेती खेलु।काची  सरसउन्  पेलि कै ना खलि भई न तेलु || २४० ||  




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