Skip to main content

धन्य गुरु नानकदेव जी की दृष्टि पर्यावरण सचेत है ,पृश्वी से उतना ही लो जितना वह दोबारा उपजा सके ,हवा पानी ही हम हैं हमारा वज़ूद है। दोनों को स्वस्थ स्वच्छ रखो दोनों पूज्य देव हैं ,धरती माता ने ही हमें धारण किया हुआ है

पवन गुरु पानी पिता माता धरत महत ,

दिवस राति दुइ दाई दाया  खेलै सगल जगत ,

चंगिआईआ बुरिआइआ वाचै धर्म हुदूर || 

करमी आपो आपनी के नेड़े के दूर ,

जिनी  नाम धिआइआ गए मशक्कत घाल.

नानक ते मुख उजले केटी छुटि नाल। 

भावसार :पवन (वायु ,हवा )परमगुरु है ,जल पिता सदृश्य हमारा पालक है (जल से ही जीवन है ,आदमी भूखो रह सकता है चंद दिन ,लेकिन इसी अवधि में पानी के बिना नहीं ,जल ही जीवन है ),पृथ्वी हमारी पालक है अन्नपूर्णा माता है। पोषक है संवर्धक है। दिन और रात के बीच ये सारा प्रपंच सारी कायनात चल रही है ,सारी सृष्टि को यही दिन रात नचा रहे हैं।ये दोनों ही पहरुवे हैं संरक्षक है गार्ज़ियन है। इन्हीं की गोद  में हम बे -फ़िक्र  बने हुए हैं संरक्षित हैं। 

हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का वह (धर्म )साक्षी है उसी को साक्षी मान शुभ अशुभ उच्चारित होता है। अपने कर्मों से ही व्यक्ति उसके (वाहगुरु )के नज़दीक पहुँच जाता है कर्मों से ही दूर हो जाता है। जिसके कर्म शुभ हैं लोककल्याण कारी पुण्य हैं वह पास से भी पास है विपरीत कर्मी  के लिए वह गुरु दूर से भी सुदूर ही बना रहता है। 

नाम की महिमा का बखान करते हुए नानक सीख देते हैं जो कर्म करते हुए उसे वाहगुरु को याद रखते हैं श्रम पूर्ण जीवन जीते हैं हर कर्म उसी को समर्पित करते हैं निष्काम निस्पृह भाव उनके चेहरे पे उसी का नूर है वही गुरमुख है।गुरमुखीय है। उनके नूर से औरों को भी लाभ और सौभाग्य प्राप्त होता है ,प्रशांति मिलती है।

विशेष :धन्य गुरु नानकदेव जी  की दृष्टि पर्यावरण सचेत है ,पृश्वी से उतना ही लो जितना वह दोबारा उपजा सके ,हवा पानी ही हम हैं हमारा वज़ूद है। दोनों को स्वस्थ स्वच्छ रखो दोनों पूज्य देव हैं ,धरती माता ने ही हमें धारण किया हुआ है। 

सन्दर्भ सामिग्री :https://www.shivpreetsingh.com/2019/10/pavan-guru-pani-pita-lyrics-translation.html

प्रस्तुति :वीरू भाई (वीरेंद्र शर्मा )

#८७० /३१ ,भूतल ,निकट फरीदाबाद मॉडल स्कूल ,सेक्टर -३१ ,फरीदाबाद -१२१ ००३ 

८५ ८८ ९८ ७१ ५०    


 

Comments

Popular posts from this blog

काहे रे बन खोजन जाई | सर्ब निवासी सदा अलेपा तोही संगि समाई || १ || रहाउ ||

काहे रे बन खोजन जाई | सर्ब निवासी सदा अलेपा तोही संगि समाई || १ || रहाउ ||  पुहप मधि जिउ बासु बसतु है मुकर माहि जैसे छाई | तैसे ही हरि बसे निरंतरि घट ही खोजहु भाई || १ ||  बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआनु बताई | जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई || २ || १ ||  भावसार : हे भाई ! परमात्मा को पाने के लिए तू जंगलों में क्यों जाता है ?परमात्मा सबमें विद्यमान है ,लेकिन सदा माया में निर्लिप्त रहता है। वह परमात्मा तुम्हारे साथ ही रहता है || १ ||  हे भाई ! जैसे पुष्प में सुगन्धि ,शीशे में प्रतिबिम्ब रहता है , उसी प्रकार परमात्मा निरंतर सबके भीतर अवस्थित रहता है।  इसलिए उसे अपने हृदय में ही खोजो। || || १ ||  गुरु का उपदेश यह बतलाता है कि अपने भीतर और बाहर एक परमात्मा को अवस्थित समझो। हे दास नानक ! अपना आत्मिक जीवन परखे दुविधा का जाला दूर नहीं हो सकता। || २ || १ || 

JAGAT MEIN JHOOTHI DEKHI PREET -Explanation in Hindi

देव  गंधारी महला ९  जगत में देखी प्रीति | अपने ही सुख सिउ सभि लागे किआ दारा किआ मीत || १ ||  मेरउ   मेरउ   सभै कहत है हित सिउ बाधिओ चीत | अंति कालि संगी नह कोऊ इह अचरज है रीति || १ ||  मन मूरख अजहू न समझत सिख दै हारिओ नीत | नानक भउजलु पारि परै जउ गावै प्रभ के गीत || २ || ३ || ६ || ३८ || ४७ ||  भावसार : हे भाई !दुनिआ में सम्बन्धियों का प्रेम मैंने मिथ्या ही देखा है।चाहे स्त्री हो या मित्र -सब अपने सुख की खातिर आदमी के साथ लगे हैं || १ || रहाउ ||  हे भाई !सबका हृदय मोह से बंधा हुआ है। प्रत्येक यही कहता है कि 'यह मेरा है ', 'यह मेरा है 'लेकिन अंतिम समय  कोई मित्र नहीं बनता। यह आश्चर्य मर्यादा सदा से चली आई है || १ ||  हे मूर्ख मन !तुझे मैं कह -कहकर थक गया हूँ ,तू अभी भी नहीं समझता | नानक का कथन है कि जब मनुष्य परमात्मा की गुणस्तुति  के गीत गाता है ,तब संसार सागर से उसका उद्धार हो जाता है। || २ || ३ || ६ || ३८ || ४७ ||  9: JAGAT MEIN JHOOTHI DEKHI PREET BY BHAI HARJINDER SINGH JI SR Sukhjinder bawa • 18K views

Page 1 ੴ सतिगुर प्रसादि॥ जपु जी का भाव पउड़ी-वार भाव: (अ) १ से ३- “झूठ” (माया) के कारण जीव की जो दूरी परमात्मा से बनती जा रही है वह प्रमात्मा के ‘हुक्म’ में चलने से ही मिट सकती है।

  श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल   Page 1 ੴ सतिगुर प्रसादि॥ जपु जी का भाव पउड़ी-वार भाव: (अ) १ से ३- “झूठ” (माया) के कारण जीव की जो दूरी परमात्मा से बनती जा रही है वह प्रमात्मा के ‘हुक्म’ में चलने से ही मिट सकती है। जब से जगत बना है तब से ही यही असूल चला आ रहा है।१। प्रभु का ‘हुक्म’ एक ऐसी सत्ता है, जिसके अधीन सारा ही जगत है। उस हुक्म-सत्ता का मुकम्मल स्वरूप् बयान नहीं हो सकता, पर जो मनुष्य उस हुक्म मंर चलना सीख लेता है, उस का स्वै-भाव मिट जाता है।२। प्रभु के भिन्न-भिन्न कार्यों को देख के मनुष्य अपनी-अपनी समझ अनुसार प्रभु की हुक्म-सत्ता का अंदाजा लगाते चले आ रहे हैं। करोड़ों ने ही प्रयत्न किया है, पर किसी भी तरफ से अंदाजा नहीं लग सका। बेअंत दातें उस के हुक्म में बेअंत लोगों को मिल रही हैं। प्रभु की हुक्म-सत्ता ऐसी ख़ूबी के साथ जगत का प्रबंध कर रही है कि बावजूद बेअंत उलझनों व गुँझलदार होते हुए भी उस प्रभु को कोई थकावट या खीज नहीं है।३। (आ) ४ से ७ दान-पुण्य करने वाले या किसी तरह के पैसे के चढ़ावे से जीव की प्रभु से यह दूरी नहीं मिट