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स्वर्ण द्वार के दरवज्जे के अंदर अमृतसर से :गुरु साहब के पावित्र्य से संसिक्त नगरी अमृतसर एक विहंगावलोकन सरसरी दृष्टि

 स्वर्ण द्वार के दरवज्जे के अंदर  अमृतसर  से :गुरु साहब के पावित्र्य से संसिक्त नगरी अमृतसर एक विहंगावलोकन सरसरी दृष्टि 



कहते हैं ये पावित्र्य में भीगा स्थान जिसे आज स्वर्णमंदिर के रूप में जाना जाता है "रामपुर -चक गाँव" के रूप में बादशाह अकबर ने गुरुअमरदास जी की बेटी के ब्याह के वक्त दहेज़ में दिया था। जिसे पहले गुरु अमरदास जी के दामाद गुरुरामदास ने बाद में गुरुअरजन देव जी ने विकसित करवाया अपने अहर्निस अनथक प्रयास से। पहले इसे "रामसर" और फिर बाद में अमृतसर के रूप में जाना गया। 

इसके  गिर्द आज एक निरंतर बने रहने वाला आध्यात्मिक स्पंदन मौजूद है जिसके आगोश में जलियांवाला बाग़ भी है तो श्रीगुरद्वारा प्रबंधक समिति द्वारा संचालित "सारागढ़ी सराय दरबारा साहब सचखंड अमृतसर"विश्राम गृह  भी है. वस्त्राभूषण  सज्जित दुकानें हैं पटके और सरोपे हैं अमृतसरी ख़ास कुलचा और लस्सी है ,नान और पराठा है ठंडा दूध है तो कढ़ाई का गरमदूध भी है। 

देसी विदेशी खानपान के रेस्त्रां हैं स्ट्रीट फ़ूड है पटके बेचते दरिद्रनारायण हैं गुरुद्वारा स्वर्णमंदिर यहां की अर्थव्यवस्था की धुरी है। सब कुछ उसी के गिर्द घूम रहा है। इस एम्बिएंस में आप कहीं भी बैठ जाइये इफ़रात  से आम औ ख़ास को उपलब्ध बेंचों पर ,खानपान की दुकानों पर एक जनप्रवाह समुन्द्र की लहरों सा अपनी ही धुन में मग्न गुरुघर की  ओर  तैरता दिखलाई देगा। दृश्य लगभग टाइम्स एस्क्वायर न्यूयॉर्क जैसा ही जगमग है लेकिन यहां के स्पंदन में न तो कार्टून करेक्टर्स हैं न बालकों को आकर्षित करते अन्य नामचीन पात्र- है तो बस शब्द कीर्तन की लयताल, एक माधुर्य हवा में घोलती हुई   चौबीसों घंटा। 

हरिमन्दिर साहिब - विकिपीडिया

जिसकी जितनी सामर्थ्य है पात्र है भांडा है लो -गुरु खुले मन से सबका स्वागत करता है कोई नस्ल भेद नहीं ,रंगभेद नहीं  राष्ट्रीयता का झंझट नहीं कोई मेटल डिटेक्टर नहीं गुरुघर में कोई आये कोई जाए नहाये खाये सोये बे -सुध। हाँ बेसुध सोये रहते हैं यहां अमीर - ग़रीब मध्यवर्गीय समूचे परिवार के परिवार ब्रह्ममुहूर्त में गुरु दर्शन की लालसा लिए।  


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